महानगर ....
एक भीड़ ...
...भागती ,दौड़ती....
कहते हैं कि कभी नहीं रूकती ...
मनुष्य यंहा खो गया एक भीड़ में...
और इस भीड़ में खोती जा रही मनुष्यता मनुष्य के साथ ...
भीड़ के साथ कदम से कदम मिला भागते -दौड़ते रहने की मजबूरी में....
भीड़
जिसका कोई आकर -प्रकार ,कोई बनावट नहीं होती
कोई सोच ,कोई समझ ,कोई विचार नहीं होती भीड़ ..
फिर भी न जाने क्या सुख ,क्या संतुष्टि मिलती है
हिस्सा होने में भीड़ का
न जाने क्यों डर लगता है ,भीड़ से बिछड़ जाने का ....
हाँ ,जानता हूँ
और उसी जानने की वजह से डरता हूँ
कि अपनी कोई सोच ,कोई समझ ,कोई विचार
कर देंगे मुझे दूर
इस भीड़ से ,और
इसलिए
में ...अपनी अपनी सोच -समझ -विचार को कुचल डालना चाहता हूँ
सर उठाने से पहले ....
और हिस्सा बना रहता हूँ
भीड़ का ..........
Saturday, December 12, 2009
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